न संसार से भागो!    न संसार में भागो!!   संसार में जागो!!!

मैं, स्वयं में, न तो भाषाविद् हूँ और न तत्त्वज्ञानी ही। हाँं! इतना अवश्य है कि ‘माँ गीता-प्रसाद ट्रस्ट’ की आधार-शिला की पृष्ठभूमि में सेवा-निवृत्ति तक 60 वर्षो के सांसारिक अनुभवों में संलिप्तता के पश्चात् सर्व-समर्थ प्रभु की अहैतुकी कृपा के फलस्वरूप सत्संग-लाभ होने के साथ माँ गीता का जीवन में प्रवेश होना है। तभी से निरन्तर 17 वर्षों के शांकरभाष्य तथा अन्यान्य ज्ञानी-मनीषियों द्वारा प्रतिपादित गीता-भाष्य, व्याख्या, टीका आदि का स्वाध्याय, श्रवण, मनन तथा अभ्यास जन्य प्रमा (विवेक) के परिणाम स्वरूप मन में यह संकल्प सुदृढ़ हुआ कि शेष जीवन माँ गीता के प्रचार और प्रसार हेतु समर्पित होगा। स्वभावगत दोषों का समुचित अभाव न होने के बावजूद प्रभु में पूर्ण निष्ठा, आश्रय तथा शरणागति के परिणाम स्वरूप परमात्मा की भरपूर कृपा की प्रत्यक्ष अनुभूति सदैव होती रहती है।

भगवान् शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र-भाष्य में कहा है कि कर्म, पुरुष-तंत्र है और ज्ञान, वस्तु-तंत्र है, जो उनकी मूल प्रकृति है। तंत्र अर्थात् शासन, जैसे प्रजातंत्र-प्रजा का शासन। महर्षि पाणिनि के अनुसार कर्त्ता वह है जो करने में, न करने में अथवा अन्य कुछ करने में स्वतंत्र है। ज्ञाता को यह स्वतंत्रता नहीं होती। ज्ञाता को ज्ञान प्राप्त करने के लिए वस्तु के आधीन होना पड़ता है। अग्नि उष्ण है तो ज्ञाता को जब भी अग्नि के विषय में जानना होगा तो उसे उष्ण ही जानना होगा। उसकी ज्ञान-वृत्ति का नियामक स्वयं ज्ञाता नहीं हो सकता, वह वस्तु होगी। वस्तु ज्ञाता को बाध्य करती है कि तुम मुझे इसी तरह से जानो। जब कोई ज्ञाता अपनी स्वतंत्रता दिखाने के लिए वस्तु जैसी है वैसे नहीं मानता है, तो वह ज्ञाता नहीं रह जाता, उसी क्षण वह कर्ता बन जाता है। अर्थात् ज्ञाता की ज्ञान-वृत्ति का नियामक वह स्वयं नहीं हो सकता है। इसी प्रकार विवेक, श्रद्धा, भक्ति, भावना, ध्यान, यज्ञ, दान तथा तप आदि पुरुष-तंत्र है और ज्ञान वस्तु-तंत्र।

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती तथा ज्ञानी महापुरुषों ने गीता को एक बुद्धिवादी जीवन-ग्रंथ कहा है। ‘बुद्धि-विवेक’ पुरुष-तंत्र है और मूल गीता-ज्ञान वस्तु-तंत्र है। मूल गीता-ज्ञान एक होने पर भी ज्ञानियों द्वारा युक्ति-युक्त प्रतिपादित भाष्य, व्याख्या, टीका आदि तथा आधिभौतिक ज्ञान-सम्पन्न बन्ध्ुाओं द्वारा इनका श्रवण, स्वाध्याय-जनित समझ की भिन्नता तथा प्रतिपादन पुरुष-तंत्र है, अर्थात् बुद्धि-विवेक के नियामक वे स्वयं हैं, न कि मूल गीता-ज्ञान।आदि गुरु शंकराचार्य गीता भाष्य की प्रस्तावना भाष्य में लिखते हैं कि-‘यह गीता शास्त्र सम्पूर्ण वेदार्थ का सार-संग्रह रूप है और इसका अर्थ समझने में अत्यन्त कठिन है। यद्यपि उसका अर्थ प्रकट करने के लिए अनेक पुरुषों ने पदच्छेद, पदार्थ, वाक्यार्थ और आक्षेप, समाधान पूर्वक उसकी विस्तृत व्याख्याएँ की हैं, तो भी लौकिक मनुष्यों द्वारा उस गीता शास्त्र का अनेक प्रकार से (परस्पर) अत्यन्त विरुद्ध, अनेक अर्थ ग्रहण किये जाते देखकर, उसका विवेक पूर्वक अर्थ निश्चित करने के लिए मैं संक्षेप से व्याख्या करूंगा।’ यही भाव 16वीं शताब्दी के मराठी विद्वान ‘श्री वामन पण्डित’ ने अपनी पुस्तक (यथार्थ-दीपिका) में व्यक्त किया है। अतः अपने-अपने कार्यों में व्यस्त आधिभौतिक ज्ञान-सम्पन्न जिज्ञासु बन्धुओं से विनम्र और साग्रह अनुरोध है कि जब कभी गीता पर प्रतिपादित भाष्य-टीका आदि में संशय या भ्रम की स्थिति बने तो उसमें दोष-दृष्टि न रख कर शांकर गीता-भाष्य की शरण लें।